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महादयी जल विवाद

August 4, 2016


कर्नाटक और गोवा के बीच : महादयी जल विवाद

27 जुलाई 2016 को कर्नाटक को बड़ा झटका देते हुए महादयी जल विवाद ट्रिब्यूनल (एमडब्ल्यूडीटी) ने महादयी नदी के 7.56 टीएमसीएफटी पानी को महादयी नदी बेसिन से मलप्रभा नदी की ओर मोड़ने के कर्नाटक के दावे को ठुकरा दिया। कर्नाटक सरकार इस प्रोजेक्ट के जरिए उत्तरी कर्नाटक के सीमावर्ती इलाकों में लोगों की पेयजल की परेशानियों को दूर करना चाहती थी।

दोनों पक्षों को सुनने के बाद ट्रिब्यूनल ने यह फैसला सुनाया है। फिर भी अंतिम फैसला आने में करीब एक साल और लग ही जाएगा।

ट्रिब्यूनल के हालिया फैसले पर प्रतिक्रिया देते हुए कर्नाटक के मुख्यमंत्री सिद्दारमैया ने कहा कि राज्य को ट्रिब्यूनल के आदेश की कॉपी मिलने का इंतजार है। उसमें ही समझ में आएगा कि ट्रिब्यूनल ने कर्नाटक के दावे को किस आधार पर खारिज किया है। तभी हम राज्य में सर्वदलीय बैठक बुलाकर अगली रणनीति तय करेंगे। उन्होंने, हालांकि यह भी कहा कि वे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से हस्तक्षेप की मांग करेंगे ताकि गोवा के साथ चल रहा यह जल विवाद सुलझ सके।

इस बीच, किसानों और परियोजना समर्थक लोगों ने नवलगुंड, हुब्बली, बेलागावी, मांड्या, नारगुंड, गड़ग समेत कई अन्य जगहों पर हिंसक प्रदर्शन शुरू कर दिए। नारगुंड और हुब्बली में तो स्कूलकॉलेजों तक को बंद करने की नौबत आ गई है।

गोवा ने ट्रिब्यूनल की मांग की थी

2002 में, गोवा ने केंद्र सरकार से अपील की थी कि अंतरराज्य जल विवाद अधिनियम 1956 के तहत एक ट्रिब्यूनल बनाया जाए ताकि गोवा और कर्नाटक के बीच के महादयी नदी जल बंटवारे का विवाद सुलझाया जा सके।

इस कानून के तहत, केंद्र सरकार जल विवाद ट्रिब्यूनल का गठन कर सकती है। खासकर उन परिस्थितियों में जब उसे लगता है कि उसके हस्तक्षेप से यह विवाद नहीं सुलझेगा।

अप्रैल 2006 में, केंद्र सरकार ने कर्नाटक, गोवा और महाराष्ट्र (सभी संबंधित राज्यों) के मुख्यमंत्रियों की बैठक बुलवाई थी। विवाद को सुलझाने की कोशिश की थी, लेकिन गोवा टस से मस नहीं हुआ। उसी साल सितंबर में उसने सुप्रीम कोर्ट में ट्रिब्यूनल बनाने की अर्जी लगा दी थी।

16 नवंबर 2010 को, केंद्र सरकार ने महादयी नदी विवाद ट्रिब्यूनल (एमडब्ल्यूडीटी) बनाने का फैसला किया।

महादयी नदी विवाद क्या है?

महादयी नदी या मोंडोवी, जैसा कि इसे गोवा में कहा जाता है, कर्नाटक के भीमगढ़ के पास स्थित 30 झरनों के क्लस्टर से निकलती है। बेलागावी जिले के खनकपुर तालुका में देगांव में यह नदी का स्वरूप लेती है।

महादयी वैसे तो बारिश आधारित नदी है, जो मानसून के महीनों में अपने शबाब पर होती है। यह नदी कर्नाटक में 35 किमी और फिर गोवा में 52 किमी तक बहती है। फिर जाकर अरब सागर में विलीन हो जाती है।

महादयी कैचमेंट एरिया में 2,032 किमी का इलाका आता है। इसके डूब क्षेत्र में महाराष्ट्र के कुछ हिस्से भी आते हैं।

कर्नाटक और गोवा के बीच विवाद की पृष्ठभूमि

उत्तरी कर्नाटक के सीमावर्ती इलाके महाराष्ट्र और गोवा से सटे हुए हैं। पारंपरिक तौर पर यह इलाका मानसूनी बारिश पर निर्भर रहता है। यहां लोगों की पेयजल और सिंचाई की जरूरतों को पूरा करने के लिए बारिशआधारित बांध बनाने में काफी कम खर्च किया गया है।

यह क्षेत्र पूरी तरह से महादयी नदी बेसिन पर आश्रित है, जिसमें 220 टीएमसीएफटी पानी आता है। इसमें से 200 टीएमसीएफटी पानी गोवा होते हुए अरब सागर चला जाता है।

पिछले कुछ बरसों के मानसून पैटर्न को देखते हुए, इस क्षेत्र के लोग पीने और सिंचाई के लिए पानी की मांग लंबे समय से कर रहे हैं।

अप्रैल 2002 में, भारत सरकार के जल संसाधन मंत्रालय और नेशनल इनवायरनमेंट इंजीनियरिंग इंस्टीट्यूट से मंजूरी लेकर कर्नाटक की राज्य सरकार ने कलासा और बांदुरी में दो बैराज बनाने की घोषणा की थी। यह महादयी नदी की दो सहायक नदियां हैं, जिनके पानी का इस्तेमाल हुब्बली, धारवाड़, बादामी, नारगुंड, रोन, नवलगुंड और गड़क क्षेत्र के रहवासियों को पीने और सिंचाई के लिए पानी की आपूर्ति में किया जाना था।

चूंकि महादयी नदी पूरी तरह मानसून आधारित नदी है। जून से अक्टूबर महीने तक ही अपने शबाब पर रहती है। कर्नाटक सरकार यदि पानी को डायवर्ट करती है तो इसका सीधा असर गोवा के लोगों पर पड़ता।

इस वजह से गोवा की राज्य सरकार ने सितंबर 2002 में सुप्रीम कोर्ट की शरण ली। योजना को चुनौती देते हुए दावा किया कि महादयी नदी के पानी को डायवर्ट किया गया तो राज्य में जलसंकट खड़ा हो जाएगा। इसका पश्चिमी घाटों की अतिसंवेदनशील इकोलॉजी पर भी गहरा असर पड़ेगा।

2006 में, गोवा ने सुप्रीम कोर्ट में ट्रिब्यूनल बनाने की मांग की। जस्टिस जेटएम पांचाल 2010 में बने ट्रिब्यूनल का नेतृत्व कर रहे हैं।

हालिया घोषणा के बाद कर्नाटक और गोवा की सरकारों को ट्रिब्यूनल के फैसले के लिए कम से कम एक साल और इंतजार करना होगा।

सामान्य परिस्थिति

राज्यों के बीच इस समय कई नदियों के पानी के बंटवारे को लेकर विवाद चल रहे हैं। सभी संबंधित पक्षों के तर्क वाजिब लगते हैं। नदी का पानी प्राकृतिक संपदा है और सभी राज्यों को अपना हक चाहिए।

लेकिन सबसे बड़ा प्रश्न इन राज्य सरकारों से पूछा जाना चाहिए कि उन्होंने बारिश का पानी रोकने के लिए अपनेअपने राज्य में क्या व्यवस्थाएं की? क्या उन्होंने इसके लिए कोई इंतजाम किए भी हैं या नहीं?

कुछ इलाकों को छोड़कर, कर्नाटक, गोवा और महाराष्ट्र के ज्यादातर इलाकों में पर्याप्त बारिश होती है। इसके बाद भी यह तीनों राज्य मानसून से पहले गंभीर जलसंकट से जूझ रहे होते हैं।

ऐसा क्यों होता है? इन राज्यों ने, देश के अन्य राज्यों ने भी, बारिश के पानी को रोकने के लिए कोई पर्याप्त इंतजाम क्यों नहीं किए। चेक डैम्स क्यों नहीं बनाएं। मिनी डैम्स और माइक्रो पौंड्स पर काम क्यों नहीं किया। यदि वह ऐसा करते तो बड़ी संख्या में लोगों की जरूरतों को पूरा कर सकते थे। खासकर संकट की परिस्थितियों में तो यह कारगर रहता ही।

तीनों ही राज्यों में इतनी बारिश तो होती ही है कि छोटे से मध्यम आकार के जल स्त्रोत भर सके। इन जल स्त्रोतों से राज्य के कम बारिश वाले इलाकों में पंप के जरिए पानी भेजा जा सकता है। लेकिन ज्यादातर राज्यों ने इस तरह के समाधान पर निवेश नहीं किया है और नदी के पानी के लिए लड़ते रहते हैं। जहां निवेश हुआ भी है वहां भ्रष्ट अफसरों और जनप्रतिनिधियों ने सिर्फ पैसा कमाने पर ध्यान दिया है। लोगों की जरूरतों पर नहीं। कई राज्यों में इस तरह का भ्रष्टाचार सामने आया है। आज भी सरकारी उदासीनता का नतीजा जनता भुगत रही है।

कर्नाटक, महाराष्ट्र और गोवा की राज्य सरकारों ने 2002 से ही, यानी विवाद शुरू होने के वक्त से ही अब तक बुद्धिमानी से यदि निवेश किया होता, तो अब तक महादयी नदी के पानी पर निर्भरता ही खत्म हो चुकी होती। इस तरह विवाद के समाधान तक पहुंचने में भी आसानी होती। सभी संबंधित राज्य संतुष्ट भी हो चुके होते।

जल बंटवारे पर और भी राज्यों में है विवाद

कृष्णा नदी

आंध्र प्रदेश, कर्नाटक और महाराष्ट्र

गोदावरी नदी

आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र और ओडिशा

नर्मदा नदी

महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, राजस्थान और गुजरात

कावेरी नदी

तमिलनाडु, कर्नाटक, केरल और पुडुचेरी

वंसधारा नदी

आंध्र प्रदेश और ओडिशा

रावी और ब्यास नदीसतलजयमुना लिंक नहर

पंजाब और हरियाणा

देबु सी