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दलित वोट बैंक की हकीकत

July 26, 2016


दलित वोट बैंक की हकीकत

दलित वोट बैंक की हकीकत

दलितों पर भाजपा की वास्तविक सोच क्या है? क्या पार्टी उनका दिल जीतना चाहती है या उनके बिना उत्तर प्रदेश में जीत हासिल करना चाहती है? यह कुछ ऐसे प्रश्न हैं जिनका जवाब देश तलाश रहा है। ज्यादातर दलितों के सामने भी यह प्रश्न खड़ा है। पक्षपातपूर्ण सामाजिक ढांचे में यह समुदाय अब भी बराबरी के हक के लिए लड़ रहा है। ऐसे में अगड़ों की पार्टी की पहचान रखने वाली भाजपा पर पूरी तरह से भरोसा करना उसके लिए इतना आसान नहीं रहेगा।

नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा 2014 में केंद्रीय सत्ता में आई थी। यह संभव नहीं होता यदि बड़ी संख्या में दलित पार्टी के पक्ष में वोट नहीं देते।

लेकिन आज, दलित फिर अलगथलग पड़ गए हैं। पार्टी उनके समुदाय के उत्थान के लिए गंभीर नजर नहीं आती। आजाद भारत में उन्हें जीने और काम करने की आजादी भी नहीं मिल पा रही। हर राजनीतिक दल ने किसी न किसी तरह से उनका इस्तेमाल पद पाने के लिए किया है और ऐसा लगता है कि यह सिलसिला थमने नहीं वाला।

उत्तर प्रदेश चुनाव और दलित फेक्टर

उत्तर प्रदेश राजनीतिक तौर पर सबसे महत्वपूर्ण राज्य है। केंद्र में सत्ता में आने का रास्ता यहीं से गुजरता है। उत्तर प्रदेश में दलित वोटरों की आबादी एक बड़ा आधार रहा है। उनकी सामूहिक वोटिंग ताकत उस समय सामने आई जब मायावती एकाएक ताकत बनकर उभरी और मुख्यमंत्री बन गई। मायावती के गुरु कांशीराम ने दलितों को एकजुट कर जो आधार तैयार किया था, उसका सही मायनों में लाभ मायावती ने उठाया।

लेकिन इन्हीं मायावती ने अपने राज्य में हार का स्वाद भी चखा। इससे साफ है कि दलित वोट बैंक को आप सहज नहीं ले सकते। यह भी साफ है कि सिर्फ दलित वोटों के सहारे आप सत्ता हासिल नहीं कर सकते। मायावती ने यह समझ लिया है और वह अपनी अपील व वोट बेस बढ़ाने के लिए कोशिश कर रही है। ऊंची जातियों में भी घुसपैठ की कोशिश कर रही हैं। इन परिस्थितियों में 2017 के विधानसभा चुनावों से पहले, राजनीतिक दल दलित कार्ड कैसे खेल रहे हैं और क्या रणनीति बना रहे हैं, यह जानना जरूरी है।

सत्ताधारी समाजवादी पार्टी को उत्तर प्रदेश के कुछ इलाकों में सत्ताविरोधी लहर का सामना करना पड़ रहा है। पिछले विधानसभा चुनावों के परिणाम बताते हैं कि बड़े पैमाने में दलितों ने बीएसपी से अलग होकर एसपी को वोट दिया था। इस बार, ऐसा लगता नहीं है कि दलित अखिलेश यादव के साथ बने रहेंगे, जो अपने पिता की छत्रछाया से अलग हटकर अपनी एक स्वतंत्र छवि बनाने में नाकाम रहे हैं।

कांग्रेस देख रही है और इंतजार कर रही है। वहीं, भाजपा अभी भी दलितों तक पहुंचने की कोशिश कर रही है और सपा से अलग हुए दलितों से फायदा उठाना चाहती है, जो कांग्रेस की ओर शिफ्ट हो रहे हैं। यूपी में कांग्रेस पार्टी ने खुद को बांध रखा है। यह अब तक साफ नहीं है कि प्रियंका गांधी की राज्य में भूमिका क्या होगी। यह ऐसा राज्य है जहां राहुल गांधी को नेतृत्व करते हुए पार्टी को आगे लाने की जिम्मेदारी संभालनी होगी।

राज बब्बर को लाने में भी पार्टी ने देरी की। इसका फायदा उठाने में भी कांग्रेस शायद ही कामयाब होगी। पार्टी को उम्मीद है कि मुस्लिम वोट्स उसे मिलेंगे, जो बीएसपी या बीजेपी तक नहीं जाने वाले। उन्हीं की बदौलत पिछले चुनावों से बेहतर प्रदर्शन की उम्मीद पार्टी कर रही है। लेकिन यदि वह सत्ता में आने के लिए प्रयासरत है तो उसे मायावती की बीएसपी से हाथ मिलाना होगा।

मायावती के अपने दम पर सत्ता में आने के अवसर काफी कम है और उनकी पार्टी का प्रदर्शन इस बात पर निर्भर करेगा कि वह दलितों को अपनी पार्टी के साथ खड़ा कर पाती हैं या नहीं।

ऐसे में भाजपा की स्थिति महत्वपूर्ण हो जाती है। यदि पार्टी को यूपी में मायावती के साथ किसी तरह की समझाइश या गठबंधन की उम्मीद है तो वह पार्टी के पूर्व उपाध्यक्ष दयाशंकर सिंह के बसपा चीफ के चरित्र पर किए दुर्भाग्यपूर्ण बयान के बाद खत्म हो गई है।

दलितों पर बारबार होते हमले

दलितों में यह डर बैठ रहा है कि 2014 में जब से भाजपा सत्ता में आई है तब से उन पर अनुचित तरीके से हमले बढ़ गए हैं। भाजपा पार्टी हाईकमान अपने कट्टरपंथी तत्वों को काबू करने में नाकाम रहा है। इससे दलित वोटों के छिटकने का डर ही सामने दिख रहा है। ऐसे में दलित आज की स्थिति में किसी भी पार्टी के करीब जा सकते हैं।

बिहार चुनावों के लिए प्रचारप्रसार के दौरान, भाजपा सांसद और केंद्रीय मंत्री जनरल वी के सिंह के बयान की अगर कोई कुत्ते को पथ्थर भी मार दे तो मीडिया उसके लिए भी मोदी जी को जिम्मेदार ठहरा देता हैजैसे बयान को भी मीडिया और विपक्ष ने ये कह कर उछाला कि जनरल सिंह ने दलितों की तुलना आवारा कुत्तो से की है । इसका दलित समुदाय ने बहुत उग्रता से विरोध किया था। उनके खिलाफ प्रदर्शन भी हुए थे।

आरएसएस ने भी दलितों और भाजपा की खाई को कम करने की खूब कोशिश की। इसमें उसकी अपनी भूमिका भी रही है। वह ऐसी किताबों को समर्थन देकर इतिहास को नए सिरे से लिखने की कोशिश कर रहा है, जो बताती हैं कि मुस्लिम आक्रांताओं की वजह से दलितों को निचली जाति का दर्जा मिला। उनसे मृत गायों की खाल निकालने जैसे काम करवाए । पर मीडिया और विपक्ष ने उनको भी दलितों की खिलाफ एक षड्यंत्र का नाम दे दिया और सभी तबकों ने इस बात का विरोध किया है। दलित भी भाजपा से और दूर हो गए हैं। यह बात बिहार के चुनाव परिणामों से साफ भी हो गई है।

हैदराबाद यूनिवर्सिटी के दलित छात्र रोहित वेमुला की आत्महत्या भाजपा के लिए दुर्भाग्यपूर्ण भी थी और असामयिक भी। वह सिर्फ मौत नहीं थी, बल्कि पार्टी ने उस मुद्दे को अच्छे से डील नहीं किया। सभी विरोधी दल एकजुट हो गए। यह साबित करते हुए कि भाजपा की सरकार ही उसकी मौत के लिए जिम्मेदार है। इससे दलितों की नजर में भाजपा की छवि और खराब हुई है।

पार्टी हाईकमान की शर्मिंदगी बढ़ाने के अपने अभियान को आगे बढ़ाते हुए भाजपा के राज्यसभा सांसद डॉ. सुब्रह्मण्यम स्वामी ने ट्वीट कर रोहित वेमुला की आत्महत्या के विरोध में प्रदर्शन करने वाले कम्युनिस्ट और उनके सहयोगियों को भोकने वाला कुत्ता कहा, जिसे मीडिया और विपक्ष ने रोहित बेमुला के व्यक्तिगत समर्थको और परिवारीजनों से जोड़ कर एक नया विवाद खड़ा कर दिया । उसी दिन प्रधानमंत्री मोदी अंबेडकर यूनिवर्सिटी में दीक्षांत समारोह को संबोधित करने वाले थे, जहां उन्होंने भावुक होकर रोहित वेमुला की दुर्भाग्यपूर्ण आत्महत्या पर बात की थी।

हाल ही में मुंबई में, अंबेडकर भवन को जमींदोज किया गया। भाजपा के नेतृत्व वाली महाराष्ट्र सरकार के खिलाफ दलितों का गुस्सा फूट पड़ा और वह सड़क पर उतर आए।

क्या भाजपा और दलित कभी एक साथ आ सकते हैं?

भाजपा के नेताओं ने पिछले कुछ समय में दलितों के खिलाफ जो गलतियां की हैं, उस लंबी सूची को देखते हुए लगता नहीं कि पार्टी उनका दलितों को सहीसही कुछ जवाब दे सकती है। हर पार्टी में कुछ न कुछ बड़बोले होते हैं। लेकिन पार्टी हाईकमान के लिए ऐसे लोगों के मुंह पर लगाम रखना जरूरी हो जाता है। उन्हें ऐसे लोगों के खिलाफ खुलकर बोलना पड़ता है। लेकिन ऐसा लगता है कि यह सब भाजपा के बड़े गेमप्लान का हिस्सा है। क्या भाजपा ऐसा ही कुछ सोच रही है?

ऐसा लगता है कि इसका जवाब कोई मायने नहीं रखता क्योंकि जितना नुकसान होना था, हो चुका है। दयाशंकर सिंह की मायावती के खिलाफ की गई टिप्पणी के बाद भाजपा के पास यूपी चुनावों से पहले बसपा चीफ के साथ कोई तालमेल बना पाना अब पार्टी के लिए असंभव ही लग रहा है।

तो क्या भाजपा, बीएसपी की मदद के बिना एसपी को हरा सकेगी? लगता तो नहीं है। भाजपा की गिरावट सिर्फ कांग्रेस के लिए फायदेमंद साबित होगी, जो अपने राजनीतिक अस्तित्व को बनाए रखने के लिए लड़ रही है। लेकिन क्या सिर्फ इतना ही देखना बचा है।

इस बीच, भाजपा पूरे यूपी में डैमेज कंट्रोल टीम को सक्रिय करने की तैयारी में है ताकि अपनी उम्मीदों को फिर से जिंदा कर सके। देखते हैं, पार्टी के बड़बोले तब तक कोई नया कांड न कर दें।

—- देबु सी