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स्कॉर्पिन पनडुब्बी डाटा लीक

September 5, 2016


स्कॉर्पिन पनडुब्बी डाटा लीक

स्कॉर्पिन पनडुब्बी डाटा लीक

स्कॉर्पिन पनडुब्बी के बारे में अतिसंवेदनशील और गोपनीय जानकारी लीक होकर सार्वजनिक हो गई। यह उन सभी देशों के लिए खतरे की घंटी हैं, जो स्कॉर्पिन का इस्तेमाल कर रहे हैं या भविष्य में लेने की योजना बना रहे हैं।

रक्षा मंत्रालय इस लीक से हुए नुकसान का जायजा ले रहा है। आकलन किया जा रहा है। उसके आधार पर ही तय होगा कि भारतीय नौसेना में छह स्कॉर्पिन पनडुब्बियों को ऑपरेशनलाइज करने की प्रक्रिया को आगे बढ़ाया जाए या नहीं।

पनडुब्बी के इस्तेमाल को लेकर ऑपरेशनल ड्रॉक्ट्रिन के साथ नौसेना समझौता करेगी, इस पर कोई सवाल नहीं उठा सकता। लेकिन सवाल यह उठता है कि किस हद तक लीक से नुकसान हुआ है और सरकार के पास अब क्या विकल्प रह गए हैं।

2005 में, भारत ने 3.5 बिलियन का ठेका फ्रांस की पनडुब्बी निर्माता कंपनी डीसीएनएस को दिया था। इसके तहत छह स्कॉर्पिन-क्लास पनडुब्बियों के निर्माण के साथ ही टेक्नोलॉजी का ट्रांसफर भी किया जाना था। यह पनडुब्बियां 2040 और उसके भी बाद तक इस्तेमाल की जानी थी, ऐसे में भारतीय रक्षा प्रतिष्ठान के लिए यह लीक दुःस्वप्न से कम नहीं है।
तो लीक किसने किया?

इस खबर का खुलासा किया ऑस्ट्रेलियाई अखबार- ‘द ऑस्ट्रेलियन’ ने। इस अखबार ने स्कॉर्पिन के टेक्निकल मैनुअल डिटेल्स के साथ ही, पानी के अंदर और बाहर के सेंसर, कम्युनिकेशन और नेविगेशन सिस्टम, कॉम्बेट मैनेजमेंट सिस्टम (सीएमएस) और टॉर्पेडो लॉन्च सिस्टम की जानकारी भी प्रकाशित कर दी। यह सभी वह गोपनीय जानकारियां हैं जो स्कॉर्पिन पनडुब्बी को अपने वर्ग में खास बनाती है। बाकी पनडुब्बियों से अलग करती है।

ऑस्ट्रेलिया में खबर बाहर आते ही अंगुलियां लीक के स्रोत के तौर पर भारत पर अंगुलियां उठने लगी थी। रक्षा मंत्री मनोहर पर्रिकर ने तो कह भी दिया था कि हो सकता है कि किसी हैकर ने यह जानकारी निकाल ली हो। सरकार ने लीक के स्रोत और नुकसान का आकलन करने के लिए जांच के आदेश भी दे दिए थे।

हालांकि, डीसीएनएस ने हालिया बयान में कहा कि हो सकता है कि फ्रांस के पूर्व नौसेना अधिकारी ने इस जानकारी को चुराया हो। जांच जारी है। लीक की वजह से फ्रांस सरकार और मैन्यूफेक्चरर डीसीएनएस को शर्मिंदगी का सामना करना पड़ा।

ऑस्ट्रेलियन अखबार ने दावा किया कि स्कॉर्पिन से जुड़ी तकनीकी जानकारी के 22 हजार पेज उसके पास है। भले ही उसने कहा हो कि वह मुख्य जानकारी सार्वजनिक नहीं करेगा, लेकिन चिंता की बात यह है कि यह जानकारी सार्वजनिक तो हो ही गई। यह न केवल भारत, बल्कि ऑस्ट्रेलिया के लिए भी चिंता का विषय है। ऑस्ट्रेलिया ने हाल ही में डीसीएनएस को स्कॉर्पिन श्रेणी की पनडुब्बी के लिए अब तक का सबसे बड़ा ऑर्डर दिया है।

फ्रांस की नौसेना के साथ-साथ मलेशिया और चिली इस समय स्कॉर्पिन चला रहे हैं। ब्राजील भी 2018 तक स्कॉर्पिन को तैनात करने की तैयारी में था। सभी सरकारों को लीक की वजह से हुए नुकसान की चिंता सताने लगी है।

लीक का फायदा चीन और पाकिस्तान को

आज के समय की पनडुब्बियों की आक्रामक क्षमताएं उसके गुप्त रहने की विशेषता पर निर्भर करती है। यानी दुश्मन की रडार पर आने से पहले ही उसके इलाके में पहुंचने की क्षमता। यह निश्चित तौर पर सोनार की टेक्नोलॉजी की क्वालिटी पर निर्भर करता है। उसी की बदौलत कोई भी पनडुब्बी दुश्मन के राडार से बच सकती है। इसके अलावा एक पनडुब्बी से दूसरी को उसका सीएमएस और ऑन-बोर्ड टॉर्पेडो ही अलग करता है। इससे ही आक्रमण और संरक्षण की क्षमताएं पता चलती हैं।

ऐसे में जब यह सूचना ही सार्वजनिक हो जाती है तो उन्हें हासिल कर दुश्मन आपको नुकसान पहुंचा सकता है। भारत जैसे देश के लिए, जो तेजी से अपनी सेनाओं को आधुनिक बना रहा हो, यह लीक बहुत नुकसानदायक है। खासकर एक तरफ आक्रामक चीनी नौसेना है तो दूसरी ओर हमेशा नाक में दम करने वाला पाकिस्तान।

पनडुब्बी से जुड़ी युद्धक क्षमताओं में दुश्मन की ताकत को जानना बेहद जरूरी होता है। चीन की पहचान ही एक ऐसे देश के तौर पर है, जो महत्वपूर्ण पश्चिमी तकनीक और सूचनाएं हासिल करने के लिए किसी भी हद तक जा सकता है। खासकर उसने भी अपनी सेना के आधुनिकीकरण का अभियान चला रखा है। उसे देखते हुए यह महत्वपूर्ण हो जाता है।

चीन के पास स्कॉर्पिन के बारे में पहले ही काफी जानकारी है। इस लीक से उसके पास स्कॉर्पिन से जुड़ी अन्य छोटी-छोटी जानकारियां भी मिल जाएंगी। पाकिस्तान के लिए चीन की बौद्धिक संपदा मुफ्त में उपलब्ध है। ऐसे में दोनों के हाथ घी की कढ़ाई में है। वह इन दस्तावेजों के असंपादित अंश हासिल करने के लिए पूरा जोर लगा देंगे।

भारत के लिए, यह एक फायदे की स्थिति छूटने जैसा है। स्कॉर्पिन को इस समय की सबसे आधुनिक बेस्ट-इन-क्लास डीजल-इलेक्ट्रिक अटैक पनडुब्बी के तौर पर जाना जाता है। यह चीन या पाकिस्तान के पास मौजूद किसी भी पनडुब्बी के मुकाबले ज्यादा अच्छी और बेहतर है।

वैसे पाकिस्तान इस समय अगोस्ता क्लास पनडुब्बी इस्तेमाल कर रहा है, जिसे फ्रांस की कंपनी सीडीएनएस ने ही तैयार किया था, लेकिन वह स्कॉर्पिन से एक पीढ़ी पीछे है।
स्कॉर्पिन- भारत की नौसैन्य ताकत के लिए महत्वपूर्ण

भारत की नौसैन्य ताकत और स्ट्रेटेजिक डॉक्ट्रिन पिछले कुछ समय सरकार की राजनीतिक, आर्थिक और कूटनीतिक ताकत बनकर उभरी थी। इसमें सबसे महत्वपूर्ण भूमिका थी भारत की पनडुब्बी क्षमता।

भारत ने कभी भी रक्षा क्षेत्र को महत्व नहीं दिया। कई साल तक यह क्षेत्र प्राथमिकताओं में पीछे ही रहा। भारतीय नौसेना ने पिछले डेढ़ दशक में इस पर ध्यान दिया और निवेश बढ़ाया। इसका नतीजा है कि नौसेना इस समय समुद्र पर नियंत्रण और जवाबी क्षमता बढ़ाने के लिए संपत्तियां जुटा रही है।

भारतीय नौसेना इस समय रूसी पनडुब्बी तकनीक पर पूरी तरह निर्भर रही है। खासकर किलो क्लास श्रेणी पर। जो लंबे समय तक मुख्य भूमिका निभाती रही। लेकिन तेजी से बदलते वैश्विक घटनाक्रम ने किलो क्लास पनडुब्बी को तेजी से अप्रचलित पनडुब्बियों की श्रेणी में लाकर खड़ा कर दिया।

भारत के पास वर्तमान में जो भी संपत्तियां हैं, ज्यादातर सोवियत रूस काल की है। उनके रखरखाव के साथ ही मरम्मत में दिक्कत आ रही है। सामान तक नहीं मिलते। भारत ने रूस पर निर्भरता को सीमित करते हुए सैन्य प्रौद्योगिकी में विविधता लाने का फैसला किया है। इसका उद्देश्य निश्चित तौर पर सेना को आधुनिक बनाने के साथ ही रूस पर निर्भरता को कम करना है।
इस संदर्भ में ही भारत ने 2005 में फ्रांस के पनडुब्बी निर्माता डीसीएनएस से संपर्क किया था। ट्रांसफर ऑफ टेक्नोलॉजी और स्कॉर्पिन क्लास स्टील्थ पनडुब्बी का निर्माण भारत में किया जाना था।

आईएनएस कलावरी, भारत में बनी छह स्कॉर्पिन-श्रेणी की पनडुब्बियों में पहली है। इसे इसी साल अक्टूबर में नौसेना में शामिल किया जाना था। बाकी पनडुब्बियों को नौ महीने में नौसेना में शामिल किया जाएगा। अब इस प्रक्रिया की समीक्षा की जाएगी।

भारत के लिए अब आगे क्या?

रक्षा मंत्रालय ने स्कॉर्पिन पर भारी-भरकम निवेश किया है और इस वजह से इस स्थिति में स्कॉर्पिन प्रोजेक्ट को रद्द कर देना अच्छा विकल्प नहीं होगा। भारतीय नौसेना डीसीएनएस और उनके सब-सिस्टम सप्लायर्स से बात कर रही है ताकि ऑपरेशनल सॉफ्टवेयर में जरूरी फेरबदल किए जा सके। लेकिन इस प्र्किराय की वजह से स्कॉर्पिन के इस्तेमाल में एक-दो साल का वक्त लग सकता है।

यह भारत के लिए अच्छी खबर नहीं है। चीन भी तेजी से हिंद महासागर क्षेत्र में अपनी पकड़ बना रहा है। फिलहाल तो नेवी इस लीक से हुए नुकसान का आकलन कर रही है। साथ ही इसकी वजह से पहुंचे नुकसान और खतरों पर भी विचार चल रहा है।

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